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ज़ख़्म के फूल से तस्कीन तलब करती है | शाही शायरी
zaKHm ke phul se taskin talab karti hai

ग़ज़ल

ज़ख़्म के फूल से तस्कीन तलब करती है

मोहसिन नक़वी

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ज़ख़्म के फूल से तस्कीन तलब करती है
बाज़ औक़ात मिरी रूह ग़ज़ब करती है

जो तिरी ज़ुल्फ़ से उतरे हों मिरे आँगन में
चाँदनी ऐसे अँधेरों का अदब करती है

अपने इंसाफ़ की ज़ंजीर न देखो कि यहाँ
मुफ़्लिसी ज़ेहन की फ़रियाद भी कब करती है

सेहन-ए-गुलशन में हवाओं की सदा ग़ौर से सुन
हर कली मातम-ए-सद-जश्न-ए-तरब करती है

सिर्फ़ दिन ढलने पे मौक़ूफ़ नहीं है 'मोहसिन'
ज़िंदगी ज़ुल्फ़ के साए में भी शब करती है