ज़ख़्म झेले दाग़ भी खाए बहुत 
दिल लगा कर हम तो पछताए बहुत 
जब न तब जागह से तुम जाया किए 
हम तो अपनी ओर से आए बहुत 
दैर से सू-ए-हरम आया न टुक 
हम मिज़ाज अपना इधर लाए बहुत 
फूल गुल शम्स ओ क़मर सारे ही थे 
पर हमें इन में तुम्हीं भाए बहुत 
गर बुका इस शोर से शब को है तो 
रोवेंगे सोने को हम-साए बहुत 
वो जो निकला सुब्ह जैसे आफ़्ताब 
रश्क से गुल फूल मुरझाए बहुत 
'मीर' से पूछा जो मैं आशिक़ हो तुम 
हो के कुछ चुपके से शरमाए बहुत
        ग़ज़ल
ज़ख़्म झेले दाग़ भी खाए बहुत
मीर तक़ी मीर

