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ज़ख़्म है और नमक फ़िशानी है | शाही शायरी
zaKHm hai aur namak fishani hai

ग़ज़ल

ज़ख़्म है और नमक फ़िशानी है

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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ज़ख़्म है और नमक फ़िशानी है
दोस्ती दुश्मनी-ए-जानी है

नक़्श-ए-अव्वल है चेहरा-ए-यूसुफ़
और तिरा चेहरा नक़्श-ए-सानी है

तेरे कूचे से माने-ए-रफ़्तार
हम को अपनी ही ना-तवानी है

हुस्न में चेहरा उस गुल-ए-तर का
नक़्श-ए-रंगीन-ए-क्लिक-ए-मानी है

उस पे परवाने गो हुजूम करें
शम्अ की वो ही कम-ज़बानी है

इस सरा में सभी मुसाफ़िर हैं
यानी जो है सो कारवानी है

आलम उस की सफ़ा का मुझ से न पूछ
नज़्म में तेरी जो रवानी है

'मुसहफ़ी' शेर-ए-सादा कहने में
वक़्त का अपने तो फ़ुग़ानी है