ज़ख़्म दबे तो फिर नया तीर चला दिया करो
दोस्तो अपना लुत्फ़-ए-ख़ास याद दिला दिया करो
एक इलाज-ए-दाइमी है तो बरा-ए-तिश्नगी
पहले ही घूँट में अगर ज़हर मिला दिया करो
शहर तलब करे अगर तुम से इलाज-ए-तीरगी
साहिब-ए-इख़्तियार हो आग लगा दिया करो
मक़्तल-ए-ग़म की रौनक़ें ख़त्म न होने पाएँगी
कोई तो आ ही जाएगा रोज़ सदा दिया करो
जज़्बा-ए-ख़ाक-पर-वरी और सुकून पाएगा
ख़ाक करो हमें तो फिर ख़ाक उड़ा दिया करो
ग़ज़ल
ज़ख़्म दबे तो फिर नया तीर चला दिया करो
पीरज़ादा क़ासीम