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ज़हराब पीने वाले अमर हो के रह गए | शाही शायरी
zahrab pine wale amar ho ke rah gae

ग़ज़ल

ज़हराब पीने वाले अमर हो के रह गए

वामिक़ जौनपुरी

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ज़हराब पीने वाले अमर हो के रह गए
नैसाँ के चंद क़तरे गुहर हो के रह गए

अहल-ए-जुनूँ वो क्या हुए जिन के बग़ैर हम
अहल-ए-ख़िरद के दस्त-ए-निगर हो के रह गए

सहरा गए तो शहर में इक शोर मच गया
जब लौट आए शहर-बदर हो के रह गए

उम्मीद के हबाबों पे उगते रहे महल
झोंका सा एक आया खंडर हो के रह गए

राहों पे दौड़ते रहे आतिश ब-ज़े़र-पा
मंज़िल मिली तो ख़ाक-बसर हो के रह गए

आवारागर्द मिस्ल बगूलों के हम रहे
बैठे तो गर्द-ए-राहगुज़र हो के रह गए

बढ़ते रहे सराबों पे मानिंद-ए-तिश्नगी
पानी मिला तो ख़ुश्क शजर हो के रह गए

नज़रें तलाश-ए-हुस्न में जा पहुँचीं ता उफ़ुक़
जल्वे तमाम हद्द-ए-नज़र हो के रह गए

पाबंदियों में थे तो दिखाते थे मोजज़े
आज़ादियों में शोबदा-गर हो के रह गए

ढाले गए तो पत्थरों से फूट निकले राग
तोड़े गए तो रक़्स-ए-शरर हो के रह गए

चंग ओ रबाब में रहे मानिंद-ए-नग़्मगी
तेग़ ओ सिनाँ में सीना सिपर हो के रह गए

मुँह जितने उतनी बातें कही जा रही हैं आज
यूँ मुश्तहर हुए कि ख़बर हो के रह गए

'वामिक़' दो-धारी तेग़ है वो लहजा-ए-जदीद
नग़्मे तमाम ख़ून में तर हो के रह गए