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ज़हर-ए-ग़म दिल में समोने भी नहीं देता है | शाही शायरी
zahr-e-gham dil mein samone bhi nahin deta hai

ग़ज़ल

ज़हर-ए-ग़म दिल में समोने भी नहीं देता है

ज़फ़र अनवर

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ज़हर-ए-ग़म दिल में समोने भी नहीं देता है
कर्ब-ए-एहसास को खोने भी नहीं देता है

दिल की ज़ख़्मों को किया करता है ताज़ा हर-दम
फिर सितम ये है कि रोने भी नहीं देता है

अश्क-ए-ख़ूँ दिल से उमँड आते हैं दरिया की तरह
दामन-ए-चश्म भिगोने भी नहीं देता है

उठना चाहें तो गिरा देता है फिर ठोकर से
बे-ख़ुदी चाहें तो होने भी नहीं देता है

हर घड़ी लगती है 'अनवर' पे नई इक तोहमत
किसी इल्ज़ाम को धोने भी नहीं देता है