ज़हर-ए-ग़म दिल में समोने भी नहीं देता है
कर्ब-ए-एहसास को खोने भी नहीं देता है
दिल की ज़ख़्मों को किया करता है ताज़ा हर-दम
फिर सितम ये है कि रोने भी नहीं देता है
अश्क-ए-ख़ूँ दिल से उमँड आते हैं दरिया की तरह
दामन-ए-चश्म भिगोने भी नहीं देता है
उठना चाहें तो गिरा देता है फिर ठोकर से
बे-ख़ुदी चाहें तो होने भी नहीं देता है
हर घड़ी लगती है 'अनवर' पे नई इक तोहमत
किसी इल्ज़ाम को धोने भी नहीं देता है

ग़ज़ल
ज़हर-ए-ग़म दिल में समोने भी नहीं देता है
ज़फ़र अनवर