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'ज़फ़र' फ़सानों कि दास्तानों में रह गए हैं | शाही शायरी
zafar fasanon ki dastanon mein rah gae hain

ग़ज़ल

'ज़फ़र' फ़सानों कि दास्तानों में रह गए हैं

ज़फ़र इक़बाल

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'ज़फ़र' फ़सानों कि दास्तानों में रह गए हैं
हम अपने गुज़रे हुए ज़मानों में रह गए हैं

अजब नहीं है कि ख़ुद हवा के सुपुर्द कर दें
ये चंद तिनके जो आशियानों में रह गए हैं

मकीन सब कूच कर गए हैं किसी तरफ़ को
अब उन के आसार ही मकानों में रह गए हैं

सुना करो सुब्ह ओ शाम कड़वी कसीली बातें
कि अब यही ज़ाइक़े ज़बानों में रह गए हैं

पसंद आई है इस क़दर ख़ातिर-ओ-तवाज़ो
जो मेहमाँ सारे मेज़बानों में रह गए हैं

हमें ही शो-केस में सजा कर रखा गया था
बड़े हमीं शहर की दुकानों में रह गए हैं

अभी यही इंक़िलाब आया है रफ़्ता रफ़्ता
जो रोने वाले थे नाच गानों में रह गए हैं

अलग अलग अपना अपना परचम उठा रखा है
कि हम क़बीलों न ख़ानदानों में रह गए हैं

'ज़फ़र' ज़मीं-ज़ाद थे ज़मीं से ही काम रक्खा
जो आसमानी थे आसमानों में रह गए हैं