ज़ालिम मिरे जिगर कूँ करे क्यूँ न फाँक फाँक
सीखा है वो निगह का पटा और अदा का बाँक
पोथी ख़याल-ए-यार की आई है जब सीं हात
दिल के वरक़ पे तब सेती लिखता हूँ ग़म की आँक
अंगुश्तरी कूँ दिल की बनाया हूँ नज़्र-ए-यार
लख़्त-ए-जिगर के ल'अल कूँ उल्फ़त का देख डाँक
आता है याद फूल के देखे सीं गुल-बदन
आशिक़ का छीलती है जिगर बुलबुलों की हाँक
जान-ए-जहाँ का ज़ौक़ अगर है तुझे 'सिराज'
पिन्हाँ निगाह-ए-ग़ैर सीं पर्दे में दिल के झाँक
ग़ज़ल
ज़ालिम मिरे जिगर कूँ करे क्यूँ न फाँक फाँक
सिराज औरंगाबादी