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ज़ालिम मिरे जिगर कूँ करे क्यूँ न फाँक फाँक | शाही शायरी
zalim mere jigar kun kare kyun na phank phank

ग़ज़ल

ज़ालिम मिरे जिगर कूँ करे क्यूँ न फाँक फाँक

सिराज औरंगाबादी

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ज़ालिम मिरे जिगर कूँ करे क्यूँ न फाँक फाँक
सीखा है वो निगह का पटा और अदा का बाँक

पोथी ख़याल-ए-यार की आई है जब सीं हात
दिल के वरक़ पे तब सेती लिखता हूँ ग़म की आँक

अंगुश्तरी कूँ दिल की बनाया हूँ नज़्र-ए-यार
लख़्त-ए-जिगर के ल'अल कूँ उल्फ़त का देख डाँक

आता है याद फूल के देखे सीं गुल-बदन
आशिक़ का छीलती है जिगर बुलबुलों की हाँक

जान-ए-जहाँ का ज़ौक़ अगर है तुझे 'सिराज'
पिन्हाँ निगाह-ए-ग़ैर सीं पर्दे में दिल के झाँक