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ज़ाहिरन ये बुत तो हैं नाज़ुक गुल-ए-तर की तरह | शाही शायरी
zahiran ye but to hain nazuk gul-e-tar ki tarah

ग़ज़ल

ज़ाहिरन ये बुत तो हैं नाज़ुक गुल-ए-तर की तरह

शौक़ बहराइची

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ज़ाहिरन ये बुत तो हैं नाज़ुक गुल-ए-तर की तरह
दिल मगर होता है कम-बख़्तों का पत्थर की तरह

जल्वा-गाह-ए-नाज़ में देख आए हैं सौ बार हम
रंग-ए-रू-ए-यार है बिल्कुल चुक़ंदर की तरह

मूनिस-ए-तन्हाई जब होता नहीं है हम-ख़याल
घर में भी झंझट हुआ करता है बाहर की तरह

आप बेहद नेक-तीनत नेक-सीरत नेक-ख़ू
हरकतें करते हैं लेकिन आप बंदर की तरह

जिस के हामी हो गए वाइ'ज़ वो बाज़ी ले गया
अहमियत है आप की दुनिया में जोकर की तरह

अल्लाह अल्लाह ये सितम-गर की क़यामत-ख़ेज़ चाल
रोज़ हंगामा हुआ करता है महशर की तरह

पूछने वाले ग़म-ए-जानाँ की शीरीनी न पूछ
ग़म के मारे रोज़ उड़ाते हैं मुज़ा'अफ़र की तरह

ज़ेब-ए-तन वाइ'ज़ के देखी है क़बा-ए-ज़र-निगार
सर पे अमामा है इक धोबी के गट्ठर की तरह

दोस्त के ईफ़ा-ए-व'अदा का है अब तक इंतिज़ार
गुज़रा अक्टूबर नवम्बर भी सितंबर की तरह

नाज़ में अंदाज़ में रफ़्तार में गुफ़्तार में
अर्दली भी हैं कलेक्टर के कलेक्टर की तरह

नश्शा-बंदी चाहते तो हैं ये हामी दीन के
फिर भी मिल जाए तो पी लें शीर-ए-मादर की तरह

हो रहा है जिस क़दर भी 'शौक़'-साहब इंसिदाद
उतनी ही कटती है रिश्वत मूली गाजर की तरह