ज़ाहिर तू है तो मैं निहाँ हूँ
बातिन तू है तो मैं अयाँ हूँ
तू ही ज़ाहिर है तू ही बातिन
तू ही तू है तो मैं कहाँ हूँ
तेरे होते कहीं नहीं मैं
अव्वल आख़िर न दरमियाँ हूँ
तू तू मैं मैं ने मार डाला
दम बंद है कीजिए न हाँ हूँ
मैं ही लैला हूँ मैं ही महमिल
नाक़ा भी हूँ मैं ही सारबाँ हूँ
हूँ कुंज-ए-क़फ़स में बंद लेकिन
बैरून-ए-ज़मीन-ओ-आसमाँ हूँ
दरिया की तरह रवाँ हूँ लेकिन
अब तक भी वहीं हूँ मैं जहाँ हूँ
जुज़ नाम नहीं निशान मेरा
सच-मुच मैं बहर-ए-बे-कराँ हूँ

ग़ज़ल
ज़ाहिर तू है तो मैं निहाँ हूँ
इस्माइल मेरठी