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यूसुफ़ी गर नहीं मुमकिन तो ज़ुलेख़ाई कर | शाही शायरी
yusufi gar nahin mumkin to zuleKHai kar

ग़ज़ल

यूसुफ़ी गर नहीं मुमकिन तो ज़ुलेख़ाई कर

माहिर-उल क़ादरी

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यूसुफ़ी गर नहीं मुमकिन तो ज़ुलेख़ाई कर
उन से पैदा कोई तक़रीब-ए-शनासाई कर

पहले हर ग़म की मोहब्बत में पज़ीराई कर
चाक फिर दामन-ए-तम्कीन-ओ-शकेबाई कर

रू-ब-रू उन के मिरा हाल सुनाने वाले
अपनी जानिब से भी कुछ हाशिया-आराई कर

न तमन्ना न तिरी याद न ग़म हो न ख़ुशी
कभी ऐसा भी अता आलम-ए-तन्हाई कर

मेरी क़िस्मत में हैं पत्थर तिरी क़िस्मत में हैं फूल
अपनी शोहरत से न अंदाज़ा-ए-रुस्वाई कर

सब मिरे हाल-ए-परेशाँ का उड़ाते हैं मज़ाक़
ऐ ग़म-ए-दोस्त मिरी हौसला-अफ़ज़ाई कर