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यूँ तुम्हारे ना-तवान-ए-शौक़ मंज़िल भर चले | शाही शायरी
yun tumhaare na-tawan-e-shauq manzil bhar chale

ग़ज़ल

यूँ तुम्हारे ना-तवान-ए-शौक़ मंज़िल भर चले

क़मर जलालवी

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यूँ तुम्हारे ना-तवान-ए-शौक़ मंज़िल भर चले
खाई ठोकर गिर पड़े गिर कर उठे उठ कर चले

छोड़ कर बीमार को ये क्या क़यामत कर चले
दम निकलने भी न पाया आप अपने घर चले

हो गया सय्याद बरहम ऐ असीरान-ए-क़फ़स
बंद अब ये नाला-ओ-फ़रियाद वर्ना पर चले

किस तरह तय की है मंज़िल इश्क़ की हम ने न पूछ
थक गए जब पाँव तेरा नाम ले ले कर चले

आ रहे हैं अश्क आँखों में अब ऐ साक़ी न छेड़
बस छलकने की कसर बाक़ी है साग़र भर चले

जब भी ख़ाली हाथ थे और अब भी ख़ाली हाथ हैं
ले के हम दुनिया में क्या आए थे क्या ले कर चले

हुस्न को ग़मगीन देखे इश्क़ ये मुमकिन नहीं
रोक ले ऐ शम्अ आँसू अब पतिंगे मर चले

इस तरफ़ भी इक नज़र हम भी खड़े हैं देर से
माँगने वाले तुम्हारे दर से झोली भर चले

ऐ 'क़मर' शब ख़त्म होने को है छोड़ो इंतिज़ार
साहिल-ए-शब से सितारे भी किनारा कर चले