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यूँ तोड़ न मुद्दत की शनासाई इधर आ | शाही शायरी
yun toD na muddat ki shanasai idhar aa

ग़ज़ल

यूँ तोड़ न मुद्दत की शनासाई इधर आ

मुज़फ़्फ़र हनफ़ी

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यूँ तोड़ न मुद्दत की शनासाई इधर आ
आ जा मिरी रूठी हुई तन्हाई इधर आ

मुझ को भी ये लम्हों का सफ़र चाट रहा है
मिल बाँट के रो लें ऐ मिरे भाई इधर आ

ऐ सैल-ए-रवान-ए-अबदी ज़िंदगी नामी
मैं कौन सा पाबंद हूँ हरजाई इधर आ

इस निकहत-ओ-रानाई से खाए हैं कई ज़ख़्म
ऐ तू कि नहीं निकहत-ओ-रानाई इधर आ

आसाब खिंचे जाते हैं अब शाम ओ सहर में
होने ही को है मारका-आराई इधर आ

सुनता हूँ कि तुझ को भी ज़माने से गिला है
मुझ को भी ये दुनिया नहीं रास आई इधर आ

मैं राह-नुमाओं में नहीं मान मिरी बात
मैं भी हूँ इसी दश्त का सौदाई इधर आ