यूँ तो सदा-ए-ज़ख़्म बड़ी दूर तक गई
इक चारागर के शहर में जा कर भटक गई
ख़ुशबू गिरफ़्त-ए-अक्स में लाया और उस के बाद
मैं देखता रहा तिरी तस्वीर थक गई
गुल को बरहना देख के झोंका नसीम का
जुगनू बुझा रहा था कि तितली चमक गई
मैं ने पढ़ा था चाँद को इंजील की तरह
और चाँदनी सलीब पे आ कर लटक गई
रोती रही लिपट के हर इक संग-ए-मील से
मजबूर हो के शहर के अंदर सड़क गई
क़ातिल को आज साहिब-ए-एजाज़ मान कर
दीवार-ए-अदल अपनी जगह से सरक गई
ग़ज़ल
यूँ तो सदा-ए-ज़ख़्म बड़ी दूर तक गई
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर