यूँ तो पहले भी हुए उस से कई बार जुदा
लेकिन अब के नज़र आते हैं कुछ आसार जुदा
गर ग़म-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ है तो ठहर जा ऐ जाँ
कि इसी मोड़ पे यारों से हुए यार जुदा
दो घड़ी उस से रहो दूर तो यूँ लगता है
जिस तरह साया-ए-दीवार से दीवार जुदा
ये जुदाई की घड़ी है कि झड़ी सावन की
मैं जुदा गिर्या-कुनाँ अब्र जुदा यार जुदा
कज-कुलाहों से कहे कौन कि ऐ बे-ख़बरों
तौक़-ए-गर्दन से नहीं तुर्रा-ए-दस्तार जुदा
कू-ए-जानाँ में भी ख़ासा था तरह-दार 'फ़राज़'
लेकिन उस शख़्स की सज-धज थी सर-ए-दार जुदा
ग़ज़ल
यूँ तो पहले भी हुए उस से कई बार जुदा
अहमद फ़राज़