यूँ तो आशिक़ तिरा ज़माना हुआ
मुझ सा जाँ-बाज़ दूसरा न हुआ
ख़ुद-ब-ख़ुद बू-ए-यार फैल गई
कोई मिन्नत-ए-कश-ए-सबा न हुआ
मैं गिरफ़्तार-ए-उल्फ़त-ए-सय्याद
दाम से छुट के भी रिहा न हुआ
ख़बर उस बे-ख़बर की ला देती
तुझ से इतना भी ऐ सबा न हुआ
उन से अर्ज़-ए-करम तो क्या करते
हम से ख़ुद शिकवा-ए-जफ़ा न हुआ
हो के बे-ख़ुद कलाम-ए-हसरत से
आज 'ग़ालिब' ग़ज़ल सरा न हुआ
ग़ज़ल
यूँ तो आशिक़ तिरा ज़माना हुआ
हसरत मोहानी