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यूँ निकलती है मिरी बात दहन से उस के | शाही शायरी
yun nikalti hai meri baat dahan se uske

ग़ज़ल

यूँ निकलती है मिरी बात दहन से उस के

लुत्फ़ुर्रहमान

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यूँ निकलती है मिरी बात दहन से उस के
जैसे बरसों का तआरुफ़ हो बदन से उस के

यूँ सर-ए-बज़्म मिला टूट के इक उम्र पे वो
हम भी घबरा गए बे-साख़्ता-पन से उस के

उस का लहजा है कि बहती हुई नग़्मों की नदी
जैसे इल्हाम की बारिश हो सुख़न से उस के

उस से मिल के भी ख़ला अब भी वही रूह में है
मुतमइन दिल भी नहीं सर्व-ओ-समन से उस के

ख़िल्क़त-ए-शहर ने अफ़्साने तराशे क्या क्या
दिल तही-दस्त ही लौटा है चमन से उस के

इस तरह शहर सलीबों से सजाया उस ने
कोई महफ़ूज़ नहीं दार-ओ-रसन से उस के

देखना किस के लहू से है चराग़ाँ मक़्तल
एक उगता हुआ सूरज है कफ़न से उस के