यूँ जो पलकों को मिला कर नहीं देखा जाता
हर तरफ़ एक ही मंज़र नहीं देखा जाता
काम इतने हैं बयाबानों के वीरानों के
शाम हो जाती है और घर नहीं देखा जाता
झाँक लेते हैं गरेबाँ में यही मुमकिन है
ऐसी पस्ती है कि ऊपर नहीं देखा जाता
जिस को ख़्वाबों को ज़रूरत हो उठा कर ले जाए
हम से अब और ये दफ़्तर नहीं देखा जाता

ग़ज़ल
यूँ जो पलकों को मिला कर नहीं देखा जाता
ज़ुल्फ़िक़ार आदिल