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यूँ दूर दूर दिल से हो हो के दिल-नशीं भी | शाही शायरी
yun dur dur dil se ho ho ke dil-nashin bhi

ग़ज़ल

यूँ दूर दूर दिल से हो हो के दिल-नशीं भी

आरज़ू लखनवी

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यूँ दूर दूर दिल से हो हो के दिल-नशीं भी
हैं तो इसी जहाँ में मिलते नहीं कहीं भी

कम एक क़ब्र से है मुझ को ये कुल ज़मीं भी
मर रहने का ठिकाना मिलता नहीं कहीं भी

तूफ़ान-ए-बहर ख़ुद हैं बढ़ती उमंगें दिल की
कश्ती क़रार लेगी हो कर न तह-नशीं भी

इम्काँ की हद के अंदर कोशिश की हद से बाहर
दिल जिस को ढूँढता है वो है भी और नहीं भी

उम्मीद-ए-दिल की फ़ितरत है बे-नियाज़ तस्कीं
कम हो न बे-क़रारी आए अगर यक़ीं भी

बीम-ओ-रजा से दिल में दरिया का जज़्र-ओ-मद है
साहिल-नवाज़ मौजें आईं भी और गईं भी

ये मुल्तफ़ित निगाहें शेवा विग़ा है जिन का
हैं मोजिब-ए-सुकूँ भी हंगामा-आफ़रीं भी

कर पहले दिल पे क़ाबू जामे की फिर ख़बर ले
दामन बचाने वाले जाती है आस्तीं भी

ख़तरे में जान जिस से वो जान से भी प्यारा
रंगीं-एज़ार शोला क़ातिल भी है हसीं भी

सर-गश्ता-ए-मोहब्बत दार-ए-मेहन में फिर कर
देख आए गोशा गोशा राहत नहीं कहीं भी

नैरंगी-ए-तलव्वुन ला-हल सा इक मुअम्मा
समझे जो तेरे तेवर पढ़ ले ख़त-ए-जबीं भी

शान-ए-ग़ुरूर उन की तस्वीर इक रुख़ी है
और आरज़ू की नज़रें शैदा भी हैं हसीं भी