यूँ चलते हैं लोग राह ज़ालिम
कोई चाल है ये भी आह ज़ालिम
औरों की तरफ़ तू देखता है
ईधर भी तो कर निगाह ज़ालिम
है रास्त तो ये कि मैं न देखा
तुझ सा कोई कज-कुलाह ज़ालिम
कुछ रहम भी है तिरी जफ़ा से
इक ख़ल्क़ है दाद-ख़्वाह ज़ालिम
किस वास्ते बोलता नहीं तू
क्या मुझ से हुआ गुनाह ज़ालिम
ऐ 'मुसहफ़ी' दिल कहीं न दीजे
होती है बुरी ये चाह ज़ालिम
ग़ज़ल
यूँ चलते हैं लोग राह ज़ालिम
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी