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यूँ भी होती है सख़ावत उस का अंदाज़ा न था | शाही शायरी
yun bhi hoti hai saKHawat us ka andaza na tha

ग़ज़ल

यूँ भी होती है सख़ावत उस का अंदाज़ा न था

क़ाज़ी एहतिशाम बछरौनी

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यूँ भी होती है सख़ावत उस का अंदाज़ा न था
भीक उस घर से मिली जिस घर का दरवाज़ा न था

शुक्रिया तेरा निगाह-ए-नाज़ तेरा शुक्रिया
मुंतशिर इस तरह अपने दिल का शीराज़ा न था

अब न मुस्तक़बिल अयाँ है और न माज़ी के नुक़ूश
वक़्त का चेहरा बहुत शफ़्फ़ाफ़ था ग़ाज़ा न था

थी मुझे दुनिया से नफ़रत था मुझे लोगों से बैर
आप पर तो बंद मेरे दिल का दरवाज़ा न था

नापने आए थे मुझ को ग़र्क़ हो कर रह गए
दोस्तों को मेरी गहराई का अंदाज़ा न था

ये हुई उक़्दा-कुशाई दर-हक़ीक़त बाद-ए-मर्ग
ज़ीस्त मैदान-ए-अमल थी कोई ख़म्याज़ा न था

सेहन-ए-गुलशन में मिली अक्सर दोबारा ताज़गी
दोस्तो कुंज-ए-क़फ़स में ज़ख़्म-ए-दिल ताज़ा न था

क़ैस वो बतला रहा था ख़ुद को लेकिन 'एहतिशाम'
कोई भी संग-ए-मलामत कोई आवाज़ा न था