यूँ भी दिल अहबाब के हम ने गाहे गाहे रक्खे थे
अपने ज़ख़्म-ए-नज़र पर ख़ुश-फ़हमी के फाहे रक्खे थे
हम ने तज़ाद-ए-दहर को समझा दो-राहे तरतीब दिए
और बरतने निकले तो देखा सह-राहे रक्खे थे
रक़्स-कदा हो बज़्म-ए-सुख़न हो कोई कारगह-ए-फ़न हो
ज़र्दोज़ों ने अपनी मा-तहती में जुलाहे रक्खे थे
मोहतसिबों की ख़ातिर भी अपने इज़हार में कुछ पहलू
रख तो लिए थे हम ने अब चाहे अन-चाहे रक्खे थे
जो वजह-ए-राहत भी न थे और टूट गए तो ग़म न हुआ
आह वो रिश्ते क्यूँ हम ने इक उम्र निबाहे रक्खे थे
काहकशाँ-बंदी में सुख़न की रह गई 'साज़' कसर कैसी
लफ़्ज़ तो हम ने चुन के नजूमे मोहरे माहे रक्खे थे
ग़ज़ल
यूँ भी दिल अहबाब के हम ने गाहे गाहे रक्खे थे
अब्दुल अहद साज़