यूँ बड़ी देर से पैमाना लिए बैठा हूँ
कोई देखे तो ये समझे कि पिए बैठा हूँ
आख़िरी नाव न आई तो कहाँ जाऊँगा
शाम से पार उतरने के लिए बैठा हूँ
मुझ को मालूम है सच ज़हर लगे है सब को
बोल सकता हूँ मगर होंट सिए बैठा हूँ
लोग भी अब मिरे दरवाज़े पे कम आते हैं
मैं भी कुछ सोच के ज़ंजीर दिए बैठा हूँ
ज़िंदगी भर के लिए रूठ के जाने वाले
मैं अभी तक तिरी तस्वीर लिए बैठा हूँ
कम से कम रेत से आँखें तो बचेंगी 'क़ैसर'
मैं हवाओं की तरफ़ पीठ किए बैठा हूँ
ग़ज़ल
यूँ बड़ी देर से पैमाना लिए बैठा हूँ
क़ैसर-उल जाफ़री