यूँ ब-मुश्किल दिल-ए-मजरूह से पैकाँ निकला
मैं ये समझा कि तिरे वस्ल का अरमाँ निकला
देख कर उस को दम-ए-नज़्अ' हुईं आँखें बंद
जान के साथ ही दीदार का अरमाँ निकला
अर्सा-ए-हश्र में पुर्सिश जो हुई उस बुत की
मेरे ही दिल में वो ग़ारत-गर-ए-ईमाँ निकला
धूम सहरा-ए-क़यामत की बहुत सुनते थे
ऐ जुनूँ वो भी मिरा एक बयाबाँ निकला
ख़ाक में मिल गए हम जिस की तमन्ना में 'जिगर'
वो लहद पर भी सँभाले हुए दामाँ निकला
ग़ज़ल
यूँ ब-मुश्किल दिल-ए-मजरूह से पैकाँ निकला
जिगर बिसवानी