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यूँ अकेला दश्त-ए-ग़ुर्बत में दिल-ए-नाकाम था | शाही शायरी
yun akela dasht-e-ghurbat mein dil-e-nakaam tha

ग़ज़ल

यूँ अकेला दश्त-ए-ग़ुर्बत में दिल-ए-नाकाम था

साक़िब लखनवी

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यूँ अकेला दश्त-ए-ग़ुर्बत में दिल-ए-नाकाम था
पीछे पीछे मौत थी आगे ख़ुदा का नाम था

बनते ही घर इब्तिदा में रू-कश-ए-अंजाम था
तिनके चुन कर जब नज़र की आशियाँ इक दाम था

बे-महल दिल के बुझाने से उन्हें क्या मिल गया
जिस को शम-ए-सुब्ह समझे वो चराग़-ए-शाम था

हाल-ए-मुनइम ख़ुद-ग़रज़ क्या जानें मय-ख़ाना में कल
रिंद थे बे-फ़िक्र गर्दिश में दिमाग़-ए-जाम था

बस यही फ़िक़रा कि शाम-ए-हिज्र ने मारा मुझे
कोई कह आता तो कितना मुख़्तसर पैग़ाम था

सैकड़ों बार एक आह-ए-सर्द से थर्रा चुका
किस क़दर नज़दीक दिल से आसमाँ का बाम था

नामवर फिर कौन होगा कार-ज़ार-ए-दहर में
जब यहाँ दिल सा अलम-बरदार-ए-ग़म गुमनाम था

मोनिस-ए-वहदत को खो बैठा बड़ी मुश्किल ये है
काटना इक शाम-ए-फ़ुर्क़त का ज़रा सा काम था

सौ जगह से छिन रहा था जब तू डरता किस लिए
खा गया धोका कि मेरे दिल की सूरत दाम था

सर चढ़ाया मैं ने चुन चुन कर ख़स-ओ-ख़ाशाक को
बाग़ के तिनके थे वो जिन का नशेमन नाम था

ज़ब्ह में इक भीड़ सी देखी थी लेकिन क्या ख़बर
गर्द मेरी हसरतें थीं या हुजूम-ए-आम था

मेरे नाले थे शब-ए-फ़ुर्क़त में कितने बर-महल
उन के कानों में मगर इक शोर-ए-बे-हंगाम था

क्या ज़माने का गिला 'साक़िब' किसी का क्या क़ुसूर
ये दिल-ए-ग़म-दोस्त ख़ुद ही दुश्मन-ए-आराम था