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ये ज़िंदगी तो बहुत कम है दोस्ती के लिए | शाही शायरी
ye zindagi to bahut kam hai dosti ke liye

ग़ज़ल

ये ज़िंदगी तो बहुत कम है दोस्ती के लिए

शारिब लखनवी

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ये ज़िंदगी तो बहुत कम है दोस्ती के लिए
कहाँ से वक़्त निकलता है दुश्मनी के लिए

ये आती जाती हुई साँस ज़िंदगी के लिए
इक इम्तिहान-ए-मुसलसल है आदमी के लिए

ये अहद-ए-नौ का अँधेरा अरे मआ'ज़-अल्लाह
तरस रहे हैं चराग़ अपनी रौशनी के लिए

उन्हें गुलों का तबस्सुम तो देख लेने दो
तमाम-उम्र जो तरसा किए हँसी के लिए

ये अहल-ए-होश मिरे रास्ते से हट जाएँ
बहुत है मेरा जुनूँ मेरी रहबरी के लिए

कोई रुके कि चले गिर पड़े कि थक जाए
गुज़रता वक़्त ठहरता नहीं किसी के लिए

किसे ख़बर थी कि जल जाएगा चमन 'शारिब'
चराग़ हम ने जलाए थे रौशनी के लिए