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ये उज़्र-ए-इम्तिहान-ए-जज़्ब-ए-दिल कैसा निकल आया | शाही शायरी
ye uzr-e-imtihan-e-jazb-e-dil kaisa nikal aaya

ग़ज़ल

ये उज़्र-ए-इम्तिहान-ए-जज़्ब-ए-दिल कैसा निकल आया

मोमिन ख़ाँ मोमिन

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ये उज़्र-ए-इम्तिहान-ए-जज़्ब-ए-दिल कैसा निकल आया
मैं इल्ज़ाम उस को देता था क़ुसूर अपना निकल आया

न शादी-मर्ग हूँ क्यूँकर है मुज़्दा क़त्ल-ए-दुश्मन का
कि घर में से लिए शमशीर वो रोता निकल आया

सितम ऐ गर्मी-ए-ज़ब्त-ए-फ़ुग़ान-ओ-आह छाती पर
कभू बस पड़ गया छाला कभू फोड़ा निकल आया

किया ज़ंजीर मुझ को चारा-गर ने किन दिनों में जब
अदू की क़ैद से वो शोख़-ए-बे-परवा निकल आया

निकल आया अगर आँसू तो ज़ालिम मत निकाल आँखें
सुना मा'ज़ूर है मुज़्तर निकल आया निकल आया

हमारे ख़ूँ-बहा का ग़ैर से दावा है क़ातिल को
ये बाद-ए-इन्फ़िसाल अब और ही झगड़ा निकल आया

हुई बुलबुल सना-ख़्वान-ए-दहान-ए-तंग किस गुल की
कि फ़रवर्दी में ग़ुंचे का मुँह इतना सा निकल आया

कोई तीर उस का दिल में रह गया था क्या कि आँखों से
अभी रोने में इक पैकान का टुकड़ा निकल आया

दम-ए-बिस्मिल ये किस के ख़ौफ़ से हम पी गए आँसू
कि हर ज़ख़्म-ए-बदन से ख़ून का दरिया निकल आया

ख़दंग-ए-यार के हमराह निकली जान सीने से
यही अरमान इक मुद्दत से जी में था निकल आया

बहुत नाज़ाँ है तू ऐ क़ैस पर वहशत दिखाऊँगा
किताबों में कभू क़िस्सा जो 'मोमिन' का निकल आया