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ये तुम से किस ने कहा है कि दास्ताँ न कहो | शाही शायरी
ye tum se kis ne kaha hai ki dastan na kaho

ग़ज़ल

ये तुम से किस ने कहा है कि दास्ताँ न कहो

अब्बास अलवी

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ये तुम से किस ने कहा है कि दास्ताँ न कहो
मगर ख़ुदा के लिए इतना सच यहाँ न कहो

ये कैसी छत है कि शबनम टपक रही है यहाँ
ये आसमान है तुम उस को साएबाँ न कहो

रह-ए-हयात में नाकामियाँ ज़रूरी हैं
ये तजरबा है इसे सई-ए-राएगाँ न कहो

मिरी जबीन बताएगी अज़्मतें उस की
उसे ख़ुदा के लिए संग-ए-आस्ताँ न कहो

यहाँ मुक़ीम हैं वीरानियाँ रग-ओ-पै में
तुम और कुछ भी कहो उस को शहर-ए-जाँ न कहो

जहाँ जहाँ भी सितम-गर मिलें ज़रूरत है
कि उस मक़ाम को तुम जादा-ए-अमाँ न कहो

मुआ'शरे का असर तो ज़रूर है 'अल्वी'
मिरी ग़ज़ल को ज़माने की दास्ताँ न कहो