ये तुम से किस ने कहा है कि दास्ताँ न कहो
मगर ख़ुदा के लिए इतना सच यहाँ न कहो
ये कैसी छत है कि शबनम टपक रही है यहाँ
ये आसमान है तुम उस को साएबाँ न कहो
रह-ए-हयात में नाकामियाँ ज़रूरी हैं
ये तजरबा है इसे सई-ए-राएगाँ न कहो
मिरी जबीन बताएगी अज़्मतें उस की
उसे ख़ुदा के लिए संग-ए-आस्ताँ न कहो
यहाँ मुक़ीम हैं वीरानियाँ रग-ओ-पै में
तुम और कुछ भी कहो उस को शहर-ए-जाँ न कहो
जहाँ जहाँ भी सितम-गर मिलें ज़रूरत है
कि उस मक़ाम को तुम जादा-ए-अमाँ न कहो
मुआ'शरे का असर तो ज़रूर है 'अल्वी'
मिरी ग़ज़ल को ज़माने की दास्ताँ न कहो
ग़ज़ल
ये तुम से किस ने कहा है कि दास्ताँ न कहो
अब्बास अलवी