ये तो नहीं कि हम पे सितम ही कभी न थे
इतना ज़रूर था कि वो नाग़ुफ़्तनी न थे
ऐ चश्म-ए-इल्तिफ़ात ये क्या हो गया तुझे
तेरी नज़र में हम तो कभी अजनबी न थे
फिरते हैं आफ़्ताब-ज़दा काएनात में
हम पर किसी की ज़ुल्फ़ के एहसाँ कभी न थे
पामाल कर दिया जो फ़लक ने तो क्या कहें
हम तो किसी कमाल के भी मुद्दई' न थे
क्या जुर्म था ये आज भी हम पर नहीं खुला
ये इल्म है कि अहल-ए-जुनूँ कुश्तनी न थे
हर लम्हा तेरे इश्क़ में उम्र-ए-अबद बना
जो दिन भी ज़िंदगी के मिले आरज़ी न थे
मुरझा के भी गई न महक जिस्म-ए-नाज़ की
ये मोतिए के फूल कोई काग़ज़ी न थे
यारान-ए-शहर इश्क़ में बे-आबरू हुए
हम पर तो मेहरबाँ वो कभी थे कभी न थे
इक़्लीम-ए-आशिक़ी को दिया दीन-ए-शाइरी
हम साहिब-ए-किताब थे गरचे नबी न थे
हम जिन की नज़्र करते जवाहर कलाम के
'ताहिर' हमारे शहर में वो जौहरी न थे

ग़ज़ल
ये तो नहीं कि हम पे सितम ही कभी न थे
जाफ़र ताहिर