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ये तो हाथों की लकीरों में था गिर्दाब कोई | शाही शायरी
ye to hathon ki lakiron mein tha girdab koi

ग़ज़ल

ये तो हाथों की लकीरों में था गिर्दाब कोई

ज़िया ज़मीर

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ये तो हाथों की लकीरों में था गिर्दाब कोई
इतने से पानी में अगर हो गया ग़र्क़ाब कोई

ग़म ज़ियादा हैं बहुत आँखें हैं सहरा सहरा
अब तो आ जाए यहाँ अश्कों का सैलाब कोई

इश्क़ का फ़ैज़ है ये तू जो चहक उट्ठा है
बे-सबब इतना भी होता नहीं शादाब कोई

अब्र बन कर मुझे आग़ोश में ले और समझ
कैसे सहरा को क्या करता है सैराब कोई

तर्बियत दीद की देते हैं जो हैं लाइक़-ए-दीद
ख़ुद कहाँ जानता है दीद के आदाब कोई

ये जो हर धूप को ललकारती रहती है सदा
क्या मिरे सर पे दुआओं की है मेहराब कोई

कैसी ताबीर की हसरत कि 'ज़िया' बरसों से
ना-मुराद आँखों ने देखा ही नहीं ख़्वाब कोई