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ये शहर है अंजान कहाँ रात गुज़ारूँ | शाही शायरी
ye shahr hai anjaan kahan raat guzarun

ग़ज़ल

ये शहर है अंजान कहाँ रात गुज़ारूँ

इशरत किरतपुरी

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ये शहर है अंजान कहाँ रात गुज़ारूँ
है जान-न-पहचान कहाँ रात गुज़ारूँ

दामन में लिए फिरता हूँ मैं दौलत-ए-ग़म को
ग़ाफ़िल है निगहबान कहाँ रात गुज़ारूँ

कुटिया तो अलग साया-ए-दीवार नहीं है
हर राह है वीरान कहाँ रात गुज़ारूँ

इस राहगुज़र पर तो शजर भी नहीं कोई
और सर पे है तूफ़ान कहाँ रात गुज़ारूँ

बहरूपिए फिरते हैं हर इक राहगुज़र पर
कोई नहीं इंसान कहाँ रात गुज़ारूँ

दर वा है कोई और न दरीचा ही खुला है
हर कूचा है वीरान कहाँ रात गुज़ारूँ