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ये शहर-ए-ज़ात बहुत है अगर बनाया जाए | शाही शायरी
ye shahr-e-zat bahut hai agar banaya jae

ग़ज़ल

ये शहर-ए-ज़ात बहुत है अगर बनाया जाए

इरफ़ान सिद्दीक़ी

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ये शहर-ए-ज़ात बहुत है अगर बनाया जाए
तो काएनात को क्यूँ दर्द-ए-सर बनाया जाए

ज़रा सी देर को रुक कर किसी जज़ीरे पर
समुंदरों का सफ़र मुख़्तसर बनाया जाए

अब एक ख़ेमा लगे दुश्मनों की बस्ती में
दुआ-ए-शब को निशाँ-ए-सहर बनाया जाए

यही कटे हुए बाज़ू अलम किए जाएँ
यही फटा हुआ सीना सिपर बनाया जाए

सुना ये है कि वो दरिया उतर गया आख़िर
तो आओ फिर उसी रेती पे घर बनाया जाए

अजब मसाफ़ सुकूत ओ सुख़न में जारी है
किसे वसीला-ए-अर्ज़-ए-हुनर बनाया जाए