ये शब ये ख़याल-ओ-ख़्वाब तेरे
क्या फूल खिले हैं मुँह-अँधेरे
शोले में है एक रंग तेरा
बाक़ी हैं तमाम रंग मेरे
आँखों में छुपाए फिर रहा हूँ
यादों के बुझे हुए सवेरे
देते हैं सुराग़ फ़स्ल-ए-गुल का
शाख़ों पे जले हुए बसेरे
मंज़िल न मिली तो क़ाफ़िलों ने
रस्ते में जमा लिए हैं डेरे
जंगल में हुई है शाम हम को
बस्ती से चले थे मुँह-अँधेरे
रूदाद-ए-सफ़र न छेड़ 'नासिर'
फिर अश्क न थम सकेंगे मेरे
ग़ज़ल
ये शब ये ख़याल-ओ-ख़्वाब तेरे
नासिर काज़मी