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ये शाख़-ए-हुनर अपनी जो गुल-ए-रेज़ रही है | शाही शायरी
ye shaKH-e-hunar apni jo gul-e-rez rahi hai

ग़ज़ल

ये शाख़-ए-हुनर अपनी जो गुल-ए-रेज़ रही है

नईम सिद्दीक़ी

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ये शाख़-ए-हुनर अपनी जो गुल-ए-रेज़ रही है
मजरूह तह-ए-ख़ंजर-ए-चंगेज़ रही है

दम लो कि ज़रा क़ाफ़िला-ए-वक़्त भी आ ले
याँ गर्दिश-ए-पैमाना बड़ी तेज़ रही है

इंसानों के दुख-सुख में बराबर रही शामिल
ये तब्अ' जो ज़ाहिर में कम-आमेज़ रही है

उस ग़म्ज़ा-ए-पिन्हाँ की हलावत भी अता हो!
जिस बिन मय-ए-इशरत भी ग़म-अंगेज़ रही है

सद मा'रका-ए-नूर-ओ-ज़िया दिल को है दरपेश
ये मेरी ख़ुदी कितनी ख़ुद-आवेज़ रही है

हर सुब्ह तन-ए-ज़ार को कुचला हुआ पाया
बस रूह-ए-तपिश-दीदा सहर-ख़ेज़ रही है

पीते रहे हम उस को तिरे हुस्न की ख़ातिर
साक़ी! ये तिरी मय कि सम-आमेज़ रही है

वाँ ग़ुंचे खिले और यहाँ ज़ख़्म रिसे हैं
हर मौज-ए-सबा ख़ंजर-ए-ख़ूँ-रेज़ रही है