ये सच है यहाँ शोर ज़ियादा नहीं होता
घर-बार के बाज़ार मैं पर क्या नहीं होता
जब्र-ए-दिल-ए-बे-मेहर का चर्चा नहीं होता
तारीकी-ए-शब में कोई चेहरा नहीं होता
हर जज़्बा-ए-मासूम की लग जाती है बोली
कहने को ख़रीदार पराया नहीं होता
औरत के ख़ुदा दो हैं हक़ीक़ी ओ मजाज़ी
पर उस के लिए कोई भी अच्छा नहीं होता
शब-भर का तिरा जागना अच्छा नहीं 'ज़ेहरा'
फिर दिन का कोई काम भी पूरा नहीं होता
ग़ज़ल
ये सच है यहाँ शोर ज़ियादा नहीं होता
ज़ेहरा निगाह