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ये साक़ी की करामत है कि फ़ैज़-ए-मय-परस्ती है | शाही शायरी
ye saqi ki karamat hai ki faiz-e-mai-parasti hai

ग़ज़ल

ये साक़ी की करामत है कि फ़ैज़-ए-मय-परस्ती है

बेदम शाह वारसी

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ये साक़ी की करामत है कि फ़ैज़-ए-मय-परस्ती है
घटा के भेस में मय-ख़ाने पर रहमत बरसती है

ये जो कुछ देखते हैं हम फ़रेब-ए-ख़्वाब-ए-हस्ती है
तख़य्युल के करिश्मे हैं बुलंदी है न पस्ती है

वहाँ हैं हम जहाँ 'बेदम' न वीराना न बस्ती है
न पाबंदी न आज़ादी न हुश्यारी न मस्ती है

तिरी नज़रों पे चढ़ना और तिरे दिल से उतर जाना
मोहब्बत में बुलंदी जिस को कहते हैं वो पस्ती है

वही हम थे कभी जो रात दिन फूलों में तुलते थे
वही हम हैं कि तुर्बत चार फूलों को तरसती है

करिश्मे हैं कि नक़्काश-ए-अज़ल नैरंगियाँ तेरी
जहाँ में माइल-ए-रंग-ए-फ़ना हर नक़्श-ए-हस्ती है

इसे भी नावक-ए-जानाँ तू अपने साथ लेता जा
कि मेरी आरज़ू दिल से निकलने को तरसती है

हर इक ज़र्रे में है इन्नी-अनल्लाह की सदा साक़ी
अजब मय-कश थे जिन की ख़ाक में भी जोश-ए-मस्ती है

ख़ुदा रक्खे दिल-ए-पुर-सोज़ तेरी शोला-अफ़्शानी
कि तू वो शम्अ है जो रौनक़-ए-दरबार-ए-हस्ती है

मिरे दिल के सिवा तू ने भी देखी बेकसी मेरी
कि आबादी न हो जिस में कोई ऐसी भी बस्ती है

हिजाबात-ए-तअय्युन माने-ए-दीदार समझा था
जो देखा तो नक़ाब-ए-रू-ए-जानाँ मेरी हस्ती है

अजब दुनिया-ए-हैरत आलम-ए-गोर-ए-ग़रीबाँ है
कि वीराने का वीराना है और बस्ती की बस्ती है

कहीं है अब्द की धुन और कहीं शोर-ए-अनल-हक़ है
कहीं इख़्फ़ा-ए-मस्ती है कहीं इज़हार-ए-मस्ती है

बनाया रश्क-ए-महर-ओ-मह तिरी ज़र्रा-नवाज़ी ने
नहीं तो क्या है 'बेदम' और क्या 'बेदम' की हस्ती है