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ये सानेहा था मुलाक़ात और बाक़ी है | शाही शायरी
ye saneha tha mulaqat aur baqi hai

ग़ज़ल

ये सानेहा था मुलाक़ात और बाक़ी है

मीर नक़ी अली ख़ान साक़िब

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ये सानेहा था मुलाक़ात और बाक़ी है
ठहर भी जाओ कि कुछ रात और बाक़ी है

फ़साना-ए-शब-ए-हस्ती तो कह चुके लेकिन
ये रंज है कि कोई बात और बाक़ी है

इसी उमीद में लौ दे रही है शम-ए-हयात
सुलग भी जाए तो बरसात और बाक़ी है

फ़ना के नाम पे लब्बैक कह चुके वर्ना
वजूद-ए-कश्मकश-ए-ज़ात और बाक़ी है

तू मुझ को भूल भी जा ये मगर ख़याल रहे
कि कुछ दिनों तो तिरा सात और बाक़ी है