ये सानेहा था मुलाक़ात और बाक़ी है
ठहर भी जाओ कि कुछ रात और बाक़ी है
फ़साना-ए-शब-ए-हस्ती तो कह चुके लेकिन
ये रंज है कि कोई बात और बाक़ी है
इसी उमीद में लौ दे रही है शम-ए-हयात
सुलग भी जाए तो बरसात और बाक़ी है
फ़ना के नाम पे लब्बैक कह चुके वर्ना
वजूद-ए-कश्मकश-ए-ज़ात और बाक़ी है
तू मुझ को भूल भी जा ये मगर ख़याल रहे
कि कुछ दिनों तो तिरा सात और बाक़ी है

ग़ज़ल
ये सानेहा था मुलाक़ात और बाक़ी है
मीर नक़ी अली ख़ान साक़िब