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ये रोज़-ओ-शब मिलेंगे कहाँ देखते चलें | शाही शायरी
ye roz-o-shab milenge kahan dekhte chalen

ग़ज़ल

ये रोज़-ओ-शब मिलेंगे कहाँ देखते चलें

ख़ुर्शीदुल इस्लाम

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ये रोज़-ओ-शब मिलेंगे कहाँ देखते चलें
आए हैं जब यहाँ तो जहाँ देखते चलें

ज़मज़म पिएँ शराब पिएँ ज़हर-ए-ग़म पिएँ
हर हर नफ़स का रक़्स-ए-जवाँ देखते चलें

हो जाएँ रफ़्ता रफ़्ता हसीनों की ख़ाक-ए-पा
बे-नाम हो के नाम-ओ-निशाँ देखते चलें

लहजे में रंग रुख़ में नज़र में ख़िराम में
इक जान-ए-जाँ का लुत्फ़-ए-निहाँ देखते चलें

आँखों से उँगलियों से लबों से ख़याल से
जिस जिस बदन में जो है समाँ देखते चलें

ये जान-आे-तन जो पीर हुए ग़म के बोझ से
जाते हुए तो उन को जवाँ देखते चलें

ख़ुश्बू से जिन की अब भी मोअ'त्तर हैं बाम-ओ-दर
इन बस्तियों में उन के निशाँ देखते चलें

ज़ौक़-ए-यक़ीं की हुस्न-ए-मुरव्वत की ग़म की मौत
जो कुछ दिखाए उम्र-ए-रवाँ देखते चलें

खाएँ फ़रेब रोज़ उठाएँ नक़ाब रोज़
हर शख़्स क्या है और कहाँ देखते चलें

माना कि राएगाँ ही गई उम्र-ए-बे-सबात
फिर भी हिसाब-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ देखते चलें