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ये 'मीर'-ए-सितम-कुश्ता किसू वक़्त जवाँ था | शाही शायरी
ye mir-e-sitam-kushta kisu waqt jawan tha

ग़ज़ल

ये 'मीर'-ए-सितम-कुश्ता किसू वक़्त जवाँ था

मीर तक़ी मीर

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ये 'मीर'-ए-सितम-कुश्ता किसू वक़्त जवाँ था
अंदाज़-ए-सुख़न का सबब शोर ओ फ़ुग़ाँ था

जादू की पुड़ी पर्चा-ए-अबयात था उस का
मुँह तकिए ग़ज़ल पढ़ते अजब सेहर-बयाँ था

जिस राह से वो दिल-ज़दा दिल्ली में निकलता
साथ उस के क़यामत का सा हंगामा रवाँ था

अफ़्सुर्दा न था ऐसा कि जूँ आब-ज़दा ख़ाक
आँधी थी बला था कोई आशोब-ए-जहाँ था

किस मर्तबा थी हसरत-ए-दीदार मिरे साथ
जो फूल मिरी ख़ाक से निकला निगराँ था

मजनूँ को अबस दावा-ए-वहशत है मुझी से
जिस दिन कि जुनूँ मुझ को हुआ था वो कहाँ था

ग़ाफ़िल थे हम अहवाल-ए-दिल-ए-ख़स्ता से अपने
वो गंज उसी कुंज-ए-ख़राबी में निहाँ था

किस ज़ोर से फ़रहाद ने ख़ारा-शिकनी की
हर-चंद कि वो बेकस ओ बे-ताब-ओ-तवाँ था

गो 'मीर' जहाँ में किन्हों ने तुझ को न जाना
मौजूद न था तू तो कहाँ नाम-ओ-निशाँ था