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ये मकीं क्या ये मकाँ सब ला-मकाँ का खेल है | शाही शायरी
ye makin kya ye makan sab la-makan ka khel hai

ग़ज़ल

ये मकीं क्या ये मकाँ सब ला-मकाँ का खेल है

शुजाअत इक़बाल

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ये मकीं क्या ये मकाँ सब ला-मकाँ का खेल है
इक फ़ुसूँ है ये जहाँ सब आसमाँ का खेल है

मुद्दतों के बा'द कोई हम से ये कह कर मिला
कुछ नहीं ये हिज्र बस आह-ओ-फ़ुग़ाँ का खेल है

आज सूखे फूल जब हम को किताबों में मिले
सोचने पर याद आया बाग़बाँ का खेल है

एक मजनूँ से सर-ए-बाज़ार जब पूछा गया
इश्क़ क्या है तो कहा दोनों-जहाँ का खेल है

साहिलों पर देखते हैं जब तड़पती मछलियाँ
इक सदा आती है ये मौज-ए-रवाँ का खेल है

गर 'सहर' उस को मनाना है तो महव-ए-रक़्स चल
सुन रहे हैं आज रक़्स-ए-दिलबराँ का खेल है