ये मकीं क्या ये मकाँ सब ला-मकाँ का खेल है
इक फ़ुसूँ है ये जहाँ सब आसमाँ का खेल है
मुद्दतों के बा'द कोई हम से ये कह कर मिला
कुछ नहीं ये हिज्र बस आह-ओ-फ़ुग़ाँ का खेल है
आज सूखे फूल जब हम को किताबों में मिले
सोचने पर याद आया बाग़बाँ का खेल है
एक मजनूँ से सर-ए-बाज़ार जब पूछा गया
इश्क़ क्या है तो कहा दोनों-जहाँ का खेल है
साहिलों पर देखते हैं जब तड़पती मछलियाँ
इक सदा आती है ये मौज-ए-रवाँ का खेल है
गर 'सहर' उस को मनाना है तो महव-ए-रक़्स चल
सुन रहे हैं आज रक़्स-ए-दिलबराँ का खेल है
ग़ज़ल
ये मकीं क्या ये मकाँ सब ला-मकाँ का खेल है
शुजाअत इक़बाल