ये महव हुए देख के बे-साख़्ता-पन को
आईने में ख़ुद चूम लिया अपने दहन को
करती है नया रोज़ मिरे दाग़-ए-कुहन को
ग़ुर्बत में ख़ुदा याद दिलाए न वतन को
छोड़ा वतन आबाद किया मुल्क-ए-दकन को
तक़दीर कहाँ ले गई यारान-ए-वतन को
क्या लुत्फ़ है जब मोनिस ओ यावर न हो कोई
हम वादी-ए-ग़ुर्बत ही समझते हैं वतन को
मुरझाए पड़े थे गुल-ए-मज़्मून हज़ारों
शादाब किया हम ने गुलिस्तान-ए-सुख़न को
ख़िदमत में तिरी नज़्र को क्या लाएँ ब-जुज़ दिल
हम रिंद तो कौड़ी नहीं रखते हैं कफ़न को
ग़ज़ल
ये महव हुए देख के बे-साख़्ता-पन को
हैरत इलाहाबादी