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ये माना नित-नए फ़ित्ने अजब रंजन-ओ-मेहन जागे | शाही शायरी
ye mana nit-nae fitne ajab ranjan-o-mehan jage

ग़ज़ल

ये माना नित-नए फ़ित्ने अजब रंजन-ओ-मेहन जागे

ख़ुर्शीदुल इस्लाम

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ये माना नित-नए फ़ित्ने अजब रंजन-ओ-मेहन जागे
मगर ये भी तो देखो चार-सू क्या क्या चमन जागे

बुझे बैठे रहें कब तक बस अब शीशे को छलकाओ
लहू चहके नफ़स महके ख़िरद नाचे बदन जागे

कोई ऐसी भी साअ'त हो कोई ऐसी भी शब आए
कि मेरी हसरतें सो जाएँ तेरा बाँकपन जागे

किताब-ए-जिस्म नर्मी से वरक़ अंदर वरक़ देखें
हिजाब-ए-शौक़ गर्मी से शिकन अंदर शिकन जागे

ख़ुमार-ए-बे-दिली हद से फ़ुज़ूँ है और दिल तन्हा
कोई ऐसी ग़ज़ल छेड़ो कि हर दाग़-ए-कुहन जागे

कहो गेसू-ए-मुश्कीं से कि बादल झूम कर उठें
ज़रा बंद-ए-क़बा खोलो कि गुल की अंजुमन जागे

पियो वो शय जो हम पीते हैं जम पीता था ज़मज़म क्या
जिसे पीने से ऐ वाइ'ज़ न तन जागे न मन जागे