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ये क्या कि इक जहाँ को करो वक़्फ़-ए-इज़्तिराब | शाही शायरी
ye kya ki ek jahan ko karo waqf-e-iztirab

ग़ज़ल

ये क्या कि इक जहाँ को करो वक़्फ़-ए-इज़्तिराब

सूफ़ी तबस्सुम

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ये क्या कि इक जहाँ को करो वक़्फ़-ए-इज़्तिराब
ये क्या कि एक दिल को शकीबाना कर सको

ऐसा न हो ये दर्द बने दर्द-ए-ला-दवा
ऐसा न हो कि तुम भी मुदावा न कर सको

शायद तुम्हें भी चैन न आए मिरे बग़ैर
शायद ये बात तुम भी गवारा न कर सको

क्या जाने फिर सितम भी मयस्सर हो या न हो
क्या जाने ये करम भी करो या न कर सको

अल्लाह करे जहाँ को मिरी याद भूल जाए
अल्लाह करे कि तुम कभी ऐसा न कर सको

मेरे सिवा किसी की न हो तुम को जुस्तुजू
मेरे सिवा किसी की तमन्ना न कर सको