ये क्या हुआ कि तबीअ'त सँभलती जाती है
तिरे बग़ैर भी ये रात ढलती जाती है
उस इक उफ़ुक़ पे अभी तक है ए'तिबार मुझे
मगर निगाह-ए-मनाज़िर बदलती जाती है
चहार सम्त से घेरा है तेज़ आँधी ने
किसी चराग़ की लौ फिर भी जलती जाती है
मैं अपने जिस्म की सरगोशियों को सुनता हूँ
तिरे विसाल की साअ'त निकलती जाती है
ये देखो आ गई मेरे ज़वाल की मंज़िल
मैं रुक गया मिरी परछाईं चलती जाती है
ग़ज़ल
ये क्या हुआ कि तबीअ'त सँभलती जाती है
शहरयार