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ये कैसी आग अभी ऐ शम्अ तेरे दिल में बाक़ी है | शाही शायरी
ye kaisi aag abhi ai shama tere dil mein baqi hai

ग़ज़ल

ये कैसी आग अभी ऐ शम्अ तेरे दिल में बाक़ी है

बिस्मिल इलाहाबादी

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ये कैसी आग अभी ऐ शम्अ तेरे दिल में बाक़ी है
कोई परवाना जल मरने को क्या महफ़िल में बाक़ी है

हज़ारों उठ गए दुनिया से अपनी जान दे दे कर
मगर इक भीड़ फिर भी कूचा-ए-क़ातिल में बाक़ी है

हुए वो मुतमइन क्यूँ सिर्फ़ मेरे दम निकलने पर
अभी तो एक दुनिया-ए-तमन्ना दिल में बाक़ी है

हुआ था ग़र्क़ बहर-ए-इश्क़ इस अंदाज़ से कोई
कि नक़्शा डूबने का दीदा-ए-साहिल में बाक़ी है

क़ज़ा से कोई ये कह दे कि मुश्ताक़-ए-शहादत हूँ
अभी इक मरने वाला कूचा-ए-क़ातिल में बाक़ी है

कहाँ फ़ुर्सत हुजूम-ए-रंज-ओ-ग़म से हम जो ये जांचें
कि निकली क्या तमन्ना क्या तमन्ना दिल में बाक़ी है

अभी से अपना दिल थामे हुए क्यूँ लोग बैठे हैं
अभी तो हश्र उठने को तिरी महफ़िल में बाक़ी है

वहाँ थे जम्अ' जितने मरने वाले मर गए वो सब
क़ज़ा ले-दे के बस अब कूचा-ए-क़ातिल में बाक़ी है

अभी से तू ने क़ातिल म्यान में तलवार क्यूँ रख ली
अभी तो जान थोड़ी सी तन-ए-'बिस्मिल' में बाक़ी है