ये कैसा रब्त हुआ दिल को तेरी ज़ात के साथ
तिरा ख़याल अब आता है बात बात के साथ
कठिन था मरहला-ए-इंतिज़ार-ए-सुब्ह बहुत
बसर हुआ हूँ मैं ख़ुद भी गुज़रती रात के साथ
पड़ीं थीं पा-ए-नज़र में हज़ार ज़ंजीरें
बंधा हुआ था मैं अपने तवहहुमात के साथ
जलूस-ए-वक़्त के पीछे रवाँ मैं इक लम्हा
कि जैसे कोई जनाज़ा किसी बरात के साथ
कभी कभी तो ये लगता है जैसे ये दुनिया
बदल रही हो मिरे दिल की वारदात के साथ
जो दूर से भी किसी ग़म का सामना हो जाए
पुकारता है मुझे कितने इल्तिफ़ात के साथ
तड़ख़ के टूट गया दिल का आईना 'मख़मूर'
पड़ा जो अक्स-ए-फ़ना परतव-ए-हयात के साथ
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ग़ज़ल
ये कैसा रब्त हुआ दिल को तेरी ज़ात के साथ
मख़मूर सईदी