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ये कह के रख़्ना डालिए उन के हिजाब में | शाही शायरी
ye kah ke raKHna Daliye un ke hijab mein

ग़ज़ल

ये कह के रख़्ना डालिए उन के हिजाब में

मुफ़्ती सदरुद्दीन आज़ुर्दा

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ये कह के रख़्ना डालिए उन के हिजाब में
अच्छे बुरे का हाल खुलेगा नक़ाब में

यारब वो ख़्वाब हक़ में मिरे ख़्वाब-ए-मर्ग हो
आए वो मस्त ख़्वाब अगर मेरे ख़्वाब में

तहक़ीक़ हो तो जानूँ कि मैं क्या हूँ क़ैस क्या
लिक्खा हुआ है यूँ तो सभी कुछ किताब में

मैं और ज़ौक़-ए-बादा-कशी ले गईं मुझे
ये कम-निगाहियाँ तिरी बज़्म-ए-शराब में

हैं दोनों मिस्ल-ए-शीशा प सामान-ए-सद-शिकस्त
जैसा है मेरे दिल में नहीं है हबाब में

ये उम्र और इश्क़ है 'आज़ुर्दा' जा-ए-शर्म
हज़रत ये बातें फबती थीं अहद-ए-शबाब में