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ये जो तेरी आँखों में मा'नी-ए-वफ़ा सा है | शाही शायरी
ye jo teri aankhon mein mani-e-wafa sa hai

ग़ज़ल

ये जो तेरी आँखों में मा'नी-ए-वफ़ा सा है

ज़फ़र अंसारी ज़फ़र

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ये जो तेरी आँखों में मा'नी-ए-वफ़ा सा है
कासा-ए-तमन्ना के हर्फ़-ए-मुद्दआ सा है

मेरे ख़ून की सुर्ख़ी सुर्ख़ी-ए-वफ़ा ठहरी
जिस से रू-ए-क़ातिल भी सुर्ख़-रू बना सा है

क़त्ल-गाह-ए-अरमाँ है जिस की महफ़िल-ए-इशरत
वो निगार-ए-फ़ित्ना-ज़ा पैकर-ए-वफ़ा सा है

जब से मुझ को हासिल है तेरे क़ुर्ब की दौलत
नक़्श-ए-संग-ए-पाइंदा मुझ पे आइना सा है

लफ़्ज़ और मा'नी का ये तअ'ल्लुक़-ए-बाहम
पेश-ए-दीदा-ए-बीना रिश्ता-ए-वफ़ा सा है

रख़्श-ए-फ़िक्र को अपने कीजिए ज़रा महमेज़
नौ-ब-नौ मज़ामीं का दर अभी खुला सा है

बाब-ए-शहर-ए-इरफ़ाँ के नूर-ए-चश्म का है फ़ैज़
परचम-ए-जहूल-ए-वक़्त जो झुका झुका सा है

दुश्मनों के नर्ग़े में मैं खड़ा हूँ तन्हा सा
मा'रका मोहब्बत का जंग-ए-कर्बला सा है

होंट तेरे फूलों से बात तेरी ख़ुशबू सी
रूप चाँद सा तेरा दिल भी आइना सा है

परचम-ए-मोहब्बत है जब से मेरे हाथों में
दर्द दिल-नशीं सा है ज़ख़्म दिल-रुबा सा है

दम में सर उठाता है दम में टूट जाता है
दिल भी बहर-ए-उल्फ़त में कोई बुलबुला सा है

शोर-ए-हश्र बरपा है या कि शोर-ए-तन्हाई
हैं बुझी बुझी आँखें दिल डरा डरा सा है

वो निगाह-ए-जानाँ का ग़मज़ा-ए-बला-अंगेज़
मुसहफ़-ए-मोहब्बत के हर्फ़-ए-इब्तिदा सा है

मेरे दिल की ख़ातिर तो ये फ़साना-ए-हस्ती
ज़ख़्म-ए-बे-रफ़ू सा है दर्द-ए-ला-दवा सा है

बस तिरी निगाहों में एहतिजाज है बातिल
हर जफ़ा मुनासिब सी हर सितम रवा सा है

नींद क्यूँ नहीं आती ख़्वाब ख़्वाब आँखों को
शहर-ए-जाँ में हर जानिब क्यूँ ये रत-जगा सा है

चेहरा-ए-मोहब्बत पर है उसी से ताबानी
ये ग़ुबार पा-ए-नाज़ ग़ाज़ा-ए-वफ़ा सा है

मुझ को मिल ही जाएगी इक न एक दिन मंज़िल
बस इसी तवक़्क़ो' पर दिल में हौसला सा है

कौन है जो रखता है दोस्त इस क़दर मुझ को
अजनबी सी दुनिया में कौन आश्ना सा है

ऐ 'ज़फ़र' न छोड़ेगा वो मुझे दुआ देना
यूँ तो है वो बरहम सा यूँ तो वो ख़फ़ा सा है