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ये जो रंगीन तबस्सुम की अदा है मुझ में | शाही शायरी
ye jo rangin tabassum ki ada hai mujh mein

ग़ज़ल

ये जो रंगीन तबस्सुम की अदा है मुझ में

मसूदा हयात

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ये जो रंगीन तबस्सुम की अदा है मुझ में
मुझ को लगता है कोई मेरे सिवा है मुझ में

ख़ुद भी हैराँ हूँ अज़ल से कि ये क्या है मुझ में
कौन शह-रग से मिरी बोल रहा है मुझ में

उम्र भर जिस को तिरे ग़म की अमानत समझा
अब वही तार-ए-नफ़स टूट गया है मुझ में

एक ख़ुश्बू सी उभरती है नफ़स से मेरे
हो न हो आज कोई आन बसा है मुझ में

मेरे क़दमों पे ज़माने की जबीं झुक जाए
देवताओं की तरह एक अना है मुझ में

तुम तो कुन कह के निगाहों से छुपे हो लेकिन
हर घड़ी एक नया हश्र बपा है मुझ में

कौन था जो मिरे एहसास को रौशन करता
उम्र भर सिर्फ़ मिरा दिल ही जला है मुझ में

दिल कभी ज़ुल्मत-फ़र्दा से हिरासाँ न हुआ
एक ख़ुर्शीद नया रोज़ उगा है मुझ में

तल्ख़-कामी से तो कुछ और निखरती है 'हयात'
किस लिए ज़हर कोई घोल रहा है मुझ में