ये जो हम कभी कभी सोचते हैं रात को
रात क्या समझ सके इन मुआमलात को
हुस्न और नजात में फ़स्ल-ए-मश्रिक़ैन है
कौन चाहता नहीं हुस्न को नजात को
ये सुकून-ए-बे-जिहत ये कशिश अजीब है
तुझ में बंद कर दिया किस ने शश-जहात को
साहिल-ए-ख़याल पर कहकशाँ की छूट थी
एक मौज ले गई इन तजल्लियात को
आँख जब उठे भर आए शेर अब कहा न जाए
कैसे भूल जाए वो भूलने की बात को
देख ऐ मिरी निगाह तू भी है जहाँ भी है
किस ने बा-ख़बर किया दूसरे की ज़ात को
क्या ऐ मिरी निगाह तू भी है जहाँ भी है
किस ने बा-ख़बर कहा दूसरे की ज़ात को
क्या हुईं रिवायतें अब हैं क्यूँ शिकायतें
इशक़-ए-ना-मुराद से हुस्न-ए-बे-सबात को
ऐ बहार-ए-सर-गिराँ तू ख़िज़ाँ-नसीब है
और हम तरस गए तेरे इल्तिफ़ात को
ग़ज़ल
ये जो हम कभी कभी सोचते हैं रात को
महबूब ख़िज़ां

